सूरज भी जग सा रहा है
रौशनी बिखरी जा रही है
धुंधला धुंधला सा नशा जाने को है
खामोशी सिमटी जा रही है
अंगड़ाईयां सांसो में है
एक उमंग सी उठती है पर
फिर ख़याल एक आता है
फिर से चादर आँखों पे रख
झूठा ही सही, अन्धेरा कर लेता हूँ
आँखे बंद करता हूँ
एक तसल्ली खुद को देता हूँ
कि अभी भी रात है बाकी
ख़्वाबों की सौगात है बाकी
ख़्वाबों में उसको देखूंगा
नींद ना आये तो भी क्या
अँधेरे में उसको सोचूंगा
वो कौन है
वो कोई और नहीं तुम ही तो हो
जिसके लिए कितने ही बहाने रोज़ कर जाता हूँ
सब से
रब से
खुद से भी
शायद तुम से भी।
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