Wednesday, April 3, 2013

एक सुबह


सूरज भी जग सा रहा है 
रौशनी बिखरी जा रही है 
धुंधला धुंधला सा नशा जाने को है 
खामोशी सिमटी जा रही है 
अंगड़ाईयां सांसो में है 
एक उमंग सी उठती है पर 
फिर ख़याल एक आता है 
फिर से चादर आँखों पे रख 
झूठा ही सही, अन्धेरा कर लेता हूँ 
आँखे बंद करता हूँ 
एक तसल्ली  खुद को देता हूँ 
कि अभी भी रात है बाकी 
ख़्वाबों की सौगात है बाकी 
ख़्वाबों में उसको देखूंगा 
नींद ना आये तो भी क्या 
अँधेरे में उसको सोचूंगा 
वो कौन है 
वो कोई और नहीं तुम ही तो हो 
जिसके लिए कितने ही बहाने रोज़ कर जाता हूँ 
सब से 
रब से 
खुद से भी 
शायद तुम से भी।

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