(रांची मेरे सपनो का शहर है, मेरा अपना शहर है। ये गीत मैंने अपने शहर के हर एक जुडाव के लिए लिखा है।एक गीत जो इस शहर के हरेक पहलु को समाहित करता है। अपने भावनात्मक जुडाव को अतिशयोक्ति से बचाते हुए मगर मेरे दिल के करीब रखते हुए काफी मेहनत से ये गीत बन पड़ा। मैं चाहता हूँ की हर एक रांची वासी तक ये गीत पहुंचे। अगर कोई इसे धुन पे पिरोना चाहे, आवाज़ के साथ साज-ले-ताल देना चाहे तो हमेशा खुला आमंत्रण है। कुछ शब्द जो परिभाषा की अपेक्षा रखते है अंत में लिख दिए गए हैं। एक कवी की दृष्टि से मेरी अपेक्षा आप सब से क्या होगी ये आप गीत पढ़ कर और गुनगुनाकर मुझे सूचित करें।----डॉ गोविन्द माधव )
फिरता हूँ सपने तलाशते
घाघ-बाग़ महुआ पलाश के।
हर मोड़ मुझे बाँहों में भर ले
कैद करे यादों के पाश से।।
मैं अपने शहर से कह दूँ
कह दूँ मैं अपने शहर से .....
रग रग में बसी मेरी रांची।
सांसो से सगी मेरी रांची।।
खुले आसमान में सबसे कहूँ
ये मुझ में बहे, मैं इसमें रहूँ
रग रग में बसी मेरी रांची।
सांसो से सगी मेरी रांची।। ......
इन गलियों में गुजरा बचपन
गूंजी किलकारी मांदर संग
कोहबर में लिपटी दीवारें
डोमकच , छऊ करता हर आँगन।
सरहुल,करमा या बजरंगी
कांके-हटिया सब एकरंगी
बिरसा-टाना के प्राण यहाँ
जिसे देख कम्पते थे फिरंगी।
कुडुख, सादरी, हो, कुरमाली
खड़िया, मुंडा या संथाली
धोनी और जयपाल के किस्से
सुगना गाती है हर डाली।
लोहा-चांदी -सोना- हीरा
माटी से दिन-रात पनपता
प्यार-मोहब्बत चैन-अमन
आसमान से रोज़ बरसता।
झरनों के इस शहर को देखा
सिंग-बोंगा के असर को देखा
माथे पर शिव मंदिर ऊँचा
है हाथों में सोने की रेखा।
माँ की गोद यहाँ की मिटटी
और आसमान है माँ का आँचल
बूंद-धुल में लहू मिलाकर
बरसा दूँ खुशियों के बादल।
मैं अपने शहर से कह दूँ
कह दूँ मैं अपने शहर से .....
रग रग में बसी मेरी रांची।
फिरता हूँ सपने तलाशते
घाघ-बाग़ महुआ पलाश के।
हर मोड़ मुझे बाँहों में भर ले
कैद करे यादों के पाश से।।
मैं अपने शहर से कह दूँ
कह दूँ मैं अपने शहर से .....
रग रग में बसी मेरी रांची।
सांसो से सगी मेरी रांची।।
खुले आसमान में सबसे कहूँ
ये मुझ में बहे, मैं इसमें रहूँ
रग रग में बसी मेरी रांची।
सांसो से सगी मेरी रांची।। ......
इन गलियों में गुजरा बचपन
गूंजी किलकारी मांदर संग
कोहबर में लिपटी दीवारें
डोमकच , छऊ करता हर आँगन।
सरहुल,करमा या बजरंगी
कांके-हटिया सब एकरंगी
बिरसा-टाना के प्राण यहाँ
जिसे देख कम्पते थे फिरंगी।
कुडुख, सादरी, हो, कुरमाली
खड़िया, मुंडा या संथाली
धोनी और जयपाल के किस्से
सुगना गाती है हर डाली।
लोहा-चांदी -सोना- हीरा
माटी से दिन-रात पनपता
प्यार-मोहब्बत चैन-अमन
आसमान से रोज़ बरसता।
झरनों के इस शहर को देखा
सिंग-बोंगा के असर को देखा
माथे पर शिव मंदिर ऊँचा
है हाथों में सोने की रेखा।
माँ की गोद यहाँ की मिटटी
और आसमान है माँ का आँचल
बूंद-धुल में लहू मिलाकर
बरसा दूँ खुशियों के बादल।
मैं अपने शहर से कह दूँ
कह दूँ मैं अपने शहर से .....
रग रग में बसी मेरी रांची।
शब्द परिभाषा
घाघ= झरने
मांदर = झारखण्ड का प्रसिद्ध वाद्य यंत्र
कोहबर = लोक चित्रकारी की एक शैली
डोम कच / छऊ = लोक नृत्य की शैली
सरहुल / करमा = आदिवासी पर्व
बजरंगी = रामनवमी का प्रतिक शब्द
कांके/हटिया = स्थान
बिरसा/टाना = स्वतंत्रता सेनानी
कुडुख/ सादरी .......= आदिवासी जनजातीय भाषा
धोनी/जयपाल = रांची के खेल हस्ती
झरनों का शहर = city of waterfall, Wikipedia
सिंग-बोंगा = आदिवासी देवता
शिव मंदिर= पहाड़ी मंदिर
सोने की रेखा = स्वर्णरेखा नदी
1 comment:
ranchi ko bakhante bimb utkrist, mukhar, manoram.
Post a Comment